छत्तीसगढ़
में शिक्षा का
विकास एवं आर्य
समाज की भूमिका
रश्मि
चैkबे
संविदा सहायक
प्राधायपक, इतिहास
अध्ययन शाला, पंडित
रविशंकर शुक्ल
विश्वविद्यालय, रायपुर
(छ.ग.)
भारत
आदिकाल से ही विश्वजगत
को धर्म, सभ्यता
एवं संस्कृति का
पाठ पढ़ाता रहा
है। धर्म की साधना
भारत का महान जीवन
वृत है। यदि भारत
के पास संसार को
देने के लिए कोई
धन है तो वह धर्म
रूप धन है। निःस्वार्थता
ही धर्म की कसौटी
है। इसी निःस्वार्थता, पुरूषार्थ
तथा आध्यात्मिक
ऊर्जा के बल पर
औरों के दिलों
पर राज करते हुए
संत पुरूष राष्ट्र
सृजन करते हैं।
स्वामी दयानंद
सरस्वती एक ऐसे
की महान संत पुरूष
थे। जिन्होंने
सन् 1875 ई. में
बम्बई में आर्य
समाज की स्थापना
की। सन् 1899 ई. में
स्वामी दयानंद
की प्रेरणा और
सद्प्रयासों से
प्रदेश में विधिवत
‘‘आर्य प्रतिनिधि
सभा’’ का गठन
हुआ।
कोई
भी समाज तभी विकास
कर पायेगा जब वह
शिक्षित हो, इसलिए
आर्य समाज द्वारा
शिक्षा के विकास
के लिये काफी प्रयास
किया गया। पूरे
भारत के साथ-साथ
छत्तीसगढ़ क्षेत्र
में भी शिक्षा
के विकास में आर्य
समाज द्वारा काफी
प्रयास किये गए।
सामान्य शिक्षित
विकसित आदिवासी
बाहुल्य इस क्षेत्र
में अभी भी शिक्षा
का पूर्ण विकास
होना है। एक संपूर्ण
रेखाचित्र देखने
के बाद लगता है, कि पिछड़ा
कहलाया जाने वाला
छत्तीसगढ़ राज्य
को तो अगुवाई करने
का हकदार होना
चाहिए। आर्य समाज
ने स्त्री शिक्षा
एवम् गुरूकुल शिक्षा
पर विशेष जोर दिया
है। आर्य समाज
ने शिक्षा के माध्यम
से भाषा एवम् वेदों
के महत्व को जनमानस
तक पहुंचाया है।
भारतीय
इतिहास में अठारहवीं
शताब्दी अंधकार
युग था। सामाजिक
बुराइयों जैसे
जाति प्रथा, अस्पृश्यता, अशिक्षा, पर्दाप्रथा, बाल
विवाह, बहुपत्नीत्व, मूर्तिपूजा, अवतारवाद
तथा धार्मिक रूढ़ियां
अपनी चरम सीमा
पर पहुंच चुकी
था।
इस सामाजिक
धार्मिक पिछड़ेपन
से जूझने के लिए
समाज को एक ऐसे
निःस्वार्थ समाज
सेवी और पथ प्रदर्शक
की आवश्यकता थी, जो न
केवल संवेदनशील
हो वरन् जनता के
विचारों का आदर
करते हुए अध्यात्म
के माध्यम से उन्हें
प्रभावित कर उनमें
एक नयी चेतना का
संचार कर सके।
उत्थान के बाद
पतन और पुनरूत्थान
प्रकृति एवं इतिहास
के नियम हैं। उन्नीसवीं
शताब्दी भारतीय
इतिाहस में पुनर्जागरण
काल के रूप में
विख्यात है। ब्रम्हसमाज, आर्य
समाज और प्रार्थना
समाज तथा महान
समाज सुधारकों
के प्रयासों के
फलस्वरूप उन्नीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध
में सामाजिक, सांस्कृतिक
चेतना पनपी जिसके
फलस्वरूप राजनीतिक
क्षेत्र में भी
जागृति उत्पन्न
हुई।1
समाज
सुधार आंदोलनों
में आर्य समाज
सबसे व्यापक और
वृहत्तम कार्यक्रमों
को लेकर चलने वाला
आंदोलन था। जिसका
क्षेत्र मुख्यतः
उत्तर एवं मध्य
भारत रहा। मध्यप्रदेश
और छत्तीसगढ़ में
भी आर्य समाज का
व्यापक प्रभाव
दिखाई देता है।
जिस
समय 1875 में स्वामी
दयानंद सरस्वती
ने आर्य समाज की
स्थापना की, उस समय
समूचे देश में
ब्रिटिश शासन द्वारा
स्थापित और नियंत्रित
तथा ईसाई मिशनरियों
द्वारा समर्थित
पश्चिमी शिक्षा
पद्धति कार्यान्वित
हो रही थी। यह शिक्षा
व्यवस्था किसी
भी तरह भारतीय
संस्कृति और परम्पराओं
तथा भारतीय इच्छाओं
और आवश्यकताओं
के अनुकूल नहीं
थी। जब कोई शिक्षा
पद्धति विदेशी
प्रादर्श पर आधारित
हों, तो वह
देश की सामाजिक
तथा राष्ट्रीय
आवश्यकताओं की
कसौटी पर खरी नहीं
उतरती परिणाम स्वरूप
देश की जनता का
सांस्कृतिक अवमूल्यन
होता है। यही स्थिति
उस समय भारत की
थी।
स्वामी
दयानंद सरस्वती
देश की तात्कालीन
शिक्षा व्यवस्था
से संतुष्ट नहीं
थे। वे भारतीयों
की शिक्षा प्रणाली
को वैदिक मान्यताओं
पर आधारित करना
चाहते थे तथा ऐसी
शिक्षा पद्धति
विकसित करना चाहते
थे, जो देश की संस्कृति
तथा परिस्थितियों
के अनुकूल हो।
उन्होंने स्वयं
पश्चिमी शिक्षा
पद्धति के भारतीय
समाज पर पड़ रहे
प्रतिकूल प्रभावों
को देखा था। वैदिक
शिक्षा पद्धति
का उनके द्वारा
किया गया गहन अध्ययन
तथा पश्चिमी शिक्षा
पद्धति के समाज
पर पड़ रहे कुप्रभावों
का निदान ढ़ूंढ़ने
की उनकी अदम्य
इच्छा ने उन्हें
शिक्षा के प्रति
अपने विचारों को
अभिव्यक्त करने
के लिये प्रेरित
किया। इस प्रकार
स्वामी जी ने नवीन
शिक्षा पद्धति
की विस्तृत योजना
तैयार की जिसे
उनके अनुयायियों
ने आगे विस्तारित
और कार्यान्वित
कर भारतीय शिक्षा
को नवजीवन प्रदान
किया।
आर्य
समाज के विभिन्न
कार्यक्रमों में
स्वामी दयानंद
सरस्वती ने शिक्षा
को महत्वपूर्ण
स्थान दिया। उनके
अनुसार सभी नागरिकों
को बिना किसी जाति
तथा लिंग के भेदभाव
के शिक्षा प्राप्त
करनी चाहिए। केवल
शिक्षा के द्वारा
ही मानव जनों में
वैदिक ज्ञान को
समझने की क्षमता
विकसित कर सकते
हैं।2
शिक्षा
के संबंध में अपने
विचारों को स्पष्ट
करते हुए वे कहते
हैं कि प्रत्येक
व्यक्ति अपनी संतान
को विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म
और स्वभाव के आभूषण
धारण करायें। यह
केवल माता-पिता
का ही नहीं अपितु
आचार्यों और संबंधियों
का भी कत्र्तव्य
होना चाहिए।
महर्षि
दयानंद के प्रारम्भिक
शिक्षा दर्शन में
चार बातों का समावेश
है।
प्रथम
- जैसे ही बच्चा
पाँच वर्ष का हो, उसे
माता द्वारा देवनागरी
लिपि के माध्यम
से संस्कृत और
हिन्दी भाषाओं
का ज्ञान कराया
जाना चाहिए।
द्वितीय
- 5-7 वर्ष
की आयु विदेशी
भाषा के ज्ञान
के लिये उपयुक्त
है।
तृतीय
- उसे वेदमंत्र
तथा श्लोकों को
स्मरण करने के
लिए प्रेरित किया
जाए।
चतुर्थ
- उसे इसी अवधि में
व्यवहारिक शिक्षा
देना उपयुक्त होगा।3
महर्षि
दयानंद सरस्वती
ने स्त्रियों को
शिक्षा देने की
आवश्यकता प्रतिपादित
करते हुए स्त्रियों
के बौद्धिक और
नैतिक विकास के
लिए आवश्यक बताया
है। मध्य काल की
मान्यता है कि
स्त्रियों और शुद्रों
को शिक्षा नहीं
दी जानी चाहिए
का खण्डन करते
हुए उन्होंने कहा
कि यह श्रुति कल्पित
है, किसी प्रामाणिक
ग्रंथ में इसका
उल्लेख नहीं है।
इसके विपरीत यजुर्वेद
के छब्बीसवें अध्याय
के दूसरे मंत्र
में यह स्पष्ट
किया गया है कि
ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र
और स्त्रियों के
लिए वेदों ने प्रकाश
दिया है। इसका
तात्पर्य यह है
कि मनुष्य वेदों
तथा अच्छी बातों
को ग्रहण कर बुरी
बातों का त्याग
करें। दयानंद सरस्वती
के अनुसार जैसे
की परमात्मा ने
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सूर्य
और अनादि पदार्थ
सबके लिए निर्मित
किये हैं और जहाँ
कहीं इसका निषेध
किया गया है उसका
अभिप्राय है कि
वहाँ मूर्खता, स्वार्थ
और निर्बुद्धिता
का प्रभाव है।
इस प्रकार उन्होंने
स्त्री शिक्षा
का विरोध करने
वालों को आड़े हाथों
लिया।4
दयानंद
सरस्वती के मतानुसार
स्त्रियों को दो
प्रकार की शिक्षा
दी जानी चाहिए:
(1) सामान्य
शिक्षा
(2) विशेष
शिक्षा
सामान्य
शिक्षा में स्त्रियों
को भी पुरूषों
के समान दी जाने
वाली व्याकरण आदि
की शिक्षा सम्मिलित
है जो उन्हें भाषा
का ज्ञान कराने
में समर्थ बनाये।
विशेष शिक्षा में
उन्हें गृह कार्यों
को कुशलता एवं
दक्षतापूर्ण सम्पन्न
करना, संतान
की उत्पत्ति, उनका
पालन-पोषण, घर के
कार्यों को सुचारू
रूप से चलाने के
लिए उन्हें चिकित्साशास्त्र, शिल्पशास्त्र
तथा गणित की शिक्षा
देना आदि बातें
सम्मिलित हैं।
इसके साथ ही वे
स्त्रियों को वेद
आदि की शिक्षा
देना भी आवश्यक
मानते हैं, ताकि
स्त्रियाँ ईश्वर
और धर्म की पहचान
कर सकें और अधर्म
से बच सकें। शिक्षा
प्राप्त करने के
उपरांत स्त्रियाँ
न केवल अच्छी सुशिक्षित
गृहणियाँ बन सकें
अपितु वे पति के
कार्यों में भी
मदद कर सकें। उनके
अनुसार आर्यावर्त
के राजपुरूषों
की महिलाएँ युद्ध
विद्या भी अच्छी
तरह से जानती थीं।
इसी
प्रकार स्त्री
शिक्षा एक ओर स्त्री
को उसके दायित्व
निर्वाह में सहायता
पहुँचाती है तो
दूसरी ओर परिवार
के कल्याण के लिए
भी आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त
समाज में स्त्रियों
को पुरूषों के
बराबर अधिकार मिले
इसलिए भी स्त्री
शिक्षा अत्यंत
आवश्यक है।5
स्वामी
दयानंद सरस्वती
के अनुसार स्त्री
शिक्षा का उद्देश्य
नारी का सर्वांगीण
विकास करना था।
इसीलिए स्वामी
जी के द्वारा प्रतिपादित
स्त्री शिक्षा
के आदर्श को क्रियान्वित
करने के उद्देश्य
से आर्य समाज ने
उनके निर्वाण के
पश्चात् 1883 में
शिक्षा संबंधी
कार्यक्रम को तेजी
से अपनाया। सर्वप्रथम
लाहौर में 1885 में
डी.ए.वी. काॅलेज
की स्थापना की
गई। वैदिक धर्म
एवं संस्कृति की
शिक्षा को एक अनिवार्य
विषय बनाया गया।
आर्य प्रतिनिधि
सभा पंजाब ने पहला
गुरूकुल 1900 में
गुजरांवाला में
स्थापित किया जिसे
1902 में
कांगड़ी लाया गया।
स्त्री
शिक्षा के क्षेत्र
में आर्य समाज
का सर्वप्रथम सशक्त
प्रयास कन्या महाविद्यालय
जालंधर था। लाल
देवराज और लाल
मुंशीराम के प्रयास
से 1886 में जालंधर
आर्य कन्या पाठशाला
स्थापित हुई। पंजाब
आर्य प्रतिनिधि
सभा द्वारा अनेक
स्त्री शिक्षण
संस्थाओं की स्थापना
की गई है। पंजाब
के अतिरिक्त हरियाणा, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश
तथा भारत के अन्य
राज्यों में भी
आर्य समाज द्वारा
स्थापित स्त्री
शिक्षण संस्थाएँ
कार्यरत् हैं।6
आर्य
समाज के सिद्धान्तों
के अनुरूप शिक्षा
की व्यवस्था एवं
विस्तार हेतु म0प्र0 एवं
विदर्भ आर्य प्रतिनिधि
सभा के प्रयासों
से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़
क्षेत्र में अनेक
विद्यालय एवं महाविद्यालय
सुचारू रूप से
संचालित हैं, छत्तीसगढ़
के शैक्षणिक विकास
में इनकी एक महत्वपूर्ण
भूमिका है। मध्यप्रदेश
एवं विदर्भ आर्य
प्रतिनिधि सभा
ने शिक्षा पर प्रत्यक्ष
नियंत्रण हासिल
कर शिक्षा के प्रचार
एवं प्रसार का
कार्य अपने हाथ
में लिया। मध्यप्रदेश
में सर्वप्रथम
सन् 1912 में गुरूकुल
होशंगाबाद की स्थापना
हुई थी।7
स्वामी
दयानंद सरस्वती
देश के सामाजिक, धार्मिक
एवं राजनैतिक उत्थान
के लिए शिक्षा
को अत्यंत महत्वपूर्ण
मानते थे। उन्होंने
प्राचीन भारतीय
गौरव को पुनः स्थापित
करने के लिए गुरूकुल
शिक्षा पद्धति
को स्वीकार किया
और विकसित करने
हेतु इस शिक्षा
पद्धति पर आधारित
गुरूकुल कांगड़ी, गुरूकुल
जबलपुर एवम् गुरूकुल
होशंगाबाद की स्थापना
हुई। कालांतर में
महर्षि दयानंद
सरस्वती के शिक्षा
सिद्धान्त में
मतभेद पैदा हो
गए परंपरावादियों
ने प्राचीन आदर्शों
को संजोए रखने
के लिये गुरूकुल
शिक्षा पद्धति
का समर्थन किया।
दूसरा मत विकासवादियों
का था जिन्होंने
आधुनिक शिक्षा
के लिए दयानंद
एंग्लो-वैदिक स्कूलों
{डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल} की स्थापना
की लेकिन दोनों
ही शिक्षण संस्थाओं
में नारी शिक्षा
को महत्वपूर्ण
स्थान दिया गया
है।
छत्तीसगढ़
का यह क्षेत्र
भी मध्यप्रदेश
एवं विदर्भ आर्य
प्रतिनिधि सभा
के शैक्षणिक उत्थान
के कार्यों से
वंचित नहीं रहा।
इस अंचल में घनश्याम
सिंह गुप्त कन्या
महाविद्यालय दुर्ग
सहित 33 (लगभग) विद्यालयों
का संचालन हो रहा
है। सभा द्वारा
प्रादेशिक आर्य
विद्या परिषद का
गठन किया गया है।
जिसके निर्देशन
में सभी शिक्षण
संस्थाओं में धार्मिक
शिक्षा की व्यवस्था
है। सभा द्वारा
शिक्षक, शिक्षिकाओं
के लिए धर्म शिक्षा
प्रशिक्षण शिविरों
का आयोजन किया
जाता है।8
छत्तीसगढ़
अंचल के दुर्ग
जिले में 1 जुलाई
सन् 1948 में एक प्राथमिक
विद्यालय को प्रारम्भ
कर दिया गया। सन्
1958 से उच्चत्तर
माध्यमिक कन्या
विद्यालय का संचालन
किया जा रहा है।
इस विद्यालय का
शुभारंभ एवं संचालन
आर्य प्रतिनिधि
सभा म0प्र0 व विदर्भ
के द्वारा किया
गया था। वस्तुतः
इसको प्रारंभ करने
का श्रेय आर्य
जगत के प्रसिद्ध
नेता तथा छत्तीसगढ़
की मिट्टी के लाल
श्री घनश्याम सिंह
गुप्त की प्रेरणा
से श्री तुलाराम
जी ने अपनी समस्त
सम्पत्ति जो उस
समय 5 लाख रूपये
आंकी गई थी जिसे
आर्य प्रतिनिधि
सभा के नाम वसीयत
की थी। श्री तुलाराम
जी की अन्तिम इच्छा
थी कि उनकी जायदाद
से जालंधर कन्या
विद्यालय के समान
एक कन्या गुरूकुल
छत्तीसगढ़ के उपयुक्त
स्थान पर प्रारम्भ
किया जाए। श्री
तुलाराम की इच्छा
के अनुरूप ही इस
विद्यालय का शुभारम्भ
कन्या गुरूकुल
के रूप में हुआ।9
आज वर्तमान
में तुलाराम आर्य
कन्या उच्च माध्यमिक
विद्यालय के नाम
से दुर्ग में संचालित
हो रही है जिसमें
तीनों संकाय कला, वाणिज्य
और विज्ञान की
पढ़ाई होती है, जहाँ
की वर्तमान प्राचार्य
श्रीमती नीना शिवहरे
के अनुसार स्कूल
में छात्राओं की
संख्या 550 के लगभग
है जो पिछले सत्रों
से लगातार बढ़ती
जा रही है। जहाँ
पुस्तकीय शिक्षा
के साथ वैदिक शिक्षा
एवम् योग शिक्षा
भी प्रदान की जाती
है।10
दुर्ग
जिले के बाद पुराने
रायपुर जिले में
सर्वप्रथम अग्निदेव
आर्य कन्या पाठशाला, धमतरी
में 1955 में स्थापित
हुई। जब 1955 में
शाला प्रारम्भ
हुई थी तब पहली
से चैथी तक कक्षाएँ
थी दर्ज संख्या
141 थी।
इस विद्यालय की
स्थापना का श्रेय
स्वामी अग्निदेव
जी को है जिन्होंने
भूमि एवं भवन बिना
किसी शर्त के सभा
को दान में दी थी।
इसका संचालन आज
भी आर्य प्रतिनिधि
सभा म0प्र0 व विदर्भ
कर रही है। इसके
बाद श्रद्धानंद
आर्य विद्यालय
संतोषी नगर, रायपुर
की स्थापना 1 जुलाई
1984 को हुई।
शाला के स्थापना
में प्रेरणा स्रोत
श्री दिव्यानंद
सरस्वती एवं सहयोगी
श्रीमती कौशिल्या
देवी, श्री
सुरेश चन्द्र शर्मा, श्री
सत्यनारायण लाहोटी
आदि थे। इसे आर्य
शिक्षा समिति रायपुर, आर्य
समाज बैजनाथपारा
व सभा द्वारा संचालन
किया जा रहा है।
जुलाई 1987 में
आर्य प्रतिनिधि
सभा म0प्र0 व विदर्भ
की तात्कालिक प्रधान
श्रीमती कौशिल्या
देवी एवं मंत्री
श्री रमेशचन्द्र
श्रीवास्तव के
कार्यकाल में ‘‘महर्षि
दयानंद आर्य उच्चत्तर
माध्यमिक विद्यालय, टाटीबंध, रायपुर’’ की स्थापना
हुई थी। अभी शाला
के वर्तमान प्राचार्य
श्री विनोद सिंह
के अनुसार शाला
में नर्सरी से
12वीं
तक {कला, वाणिज्य
एवं विज्ञान संकाय} की पढ़ाई
होती है। बच्चों
की संख्या 800 के लगभग
है जो पिछले 3 वर्षों
में 300 के करीब बढ़ी
है, यहाँ 32 शिक्षक
स्टाॅफ है। यहाँ
गुरूकुल स्कूल
भी संचालित हो
रही है जिसमें
34 बच्चे
है उनमें से 9 बच्चे
नागालैण्ड, आसाम
से हैं। यहाँ छात्रों
को वैदिक शिक्षा
भी प्रदान की जाती
है तथा प्रत्येक
रविवार को हवन
किया जाता है।11 अतः
मध्यप्रदेश एवं
विदर्भ आर्य प्रतिनिधि
सभा द्वारा छत्तीसगढ़
में संचालित शिक्षण
संस्थाओं में से
कुछ निम्नानुसार
हैं:-
दयानंद
आर्य विद्यालय
भिलाई, सेक्टर-6
1969
महर्षि
दयानंद आर्य विद्यालय, मठपारा, दुर्ग
1976
दयानंद
एंग्लो वैदिक माॅडल
स्कूल, दुर्ग
1982
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, जामुल
1983
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, भिलाई-7
1989
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, हिरमी, जिला-रायपुर
1990
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, सोनाड़ी, जिला-रायपुर
1990
दयानंद
एंग्लो-वैदिक कान्वेंट, रायगढ़
1973
आर्य
उच्चत्तर माध्यमिक
विद्यालय, बिलासपुर
1980
दयानंद
बाल मंदिर एवं
प्राथमिक शाला, गोड़पारा, बिलासपुर
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, बाल्को
नगर, कोरबा
1986
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, विश्रामपुर, जिला-सरगुजा
1991
दयानंद
आंग्ल-वैदिक कान्वेंट
- कांकेर
1978
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, किरन्दुल
1990
डी.ए.वी. पब्लिक
स्कूल, बचेली
199012
शिक्षा
के विकास से किसी
राष्ट्र की भाषा
का विकास सम्भव
है क्योंकि भाषा
विचाराभिव्यक्ति
का माध्यम होती
है। भारत एक बहुभाषी
देश है, जहाँ
विभिन्न भाषाओं
के बोलने वाले
लोग निवास करते
हैं। यद्यपि संस्कृत
भाषा को हमारे
देश में सर्वानुमोदित
सम्मान प्राप्त
है तथा वह विभिन्न
भारतीय धर्मों, दर्शनों
तथा विचारधाराओं
को अभिव्यक्ति
प्रदान करती रही
है तथापि इस देश
की राष्ट्र भाषा
के रूप हिन्दी
को ही मान्यता
मिल सकती है। आर्य
समाज ने अपने विचारों
के सार्वत्रिक
प्रचार के लिए
मुख्यतया हिन्दी
भाषा को ही ग्रहण
किया था। इसका
एक लाभदायक परिणाम
यह निकला है कि
उसकी विचारधारा
भारत के बहुसंख्यक
लोगों के मानस
तक पैठ सकी जबकि
अंग्रेजी भाषा
में मुखयतया ग्रंथ
लेखन करने वाले
ब्रम्ह समाज और
थियोसोफिकल सोसायटी
के विचारों का
प्रसार केवल अंग्रेजी
पढ़ने और समझने
वाले एक सीमित
वर्ग तक ही हो सका।
इन संस्थाओं ने
भारत के जनमानस
की धड़कन को पहचानने
का प्रयत्न किया
किन्तु अंग्रेजी
को ही वैचारिक
आदान-प्रदान का
साधन बना लेने
के कारण इसकी आवाज
भारत के बुद्धिजीवी
उच्च तथा अभिजात्य
वर्ग तक ही पहुँच
सकी। स्वामी दयानंद
सरस्वती ने साहित्य
के माध्यम से उन्होंने
विधवा विवाह, नारी
शिक्षा, गोरक्षा, शुद्धि
आन्दोलन को प्रोत्साहित
किया एवं अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, मूर्तिपूजा, बाल
प्रथा, बाल
विवाह जैसी सामाजिक
कुरीतियों का प्रबल
विरोध किया।
छत्तीसगढ़
क्षेत्र में भी
आर्य समाज अपना
संदेश जन-जन तक
पहुंचाना चाहता
था इसलिए प्रांतीय
और आंचलिक भाषाओं
में साहित्य लेखन
को प्रोत्साहन
दिया गया। छत्तीसगढ़
अंचल में सर्वाधिक
लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी
बोली है जिसमें
इस अंचल के प्रसिद्ध
आर्य सामाजियों
ने अपने साहित्य
का लेखन किया है।
कुछ लेखन कार्य
हिन्दी में भी
हुआ है। श्री घनश्याम
सिंह गुप्त, पं. सुन्दरलाल
शर्मा, मिनीमाता
आदि आर्य सामाजियों
ने साहित्य के
महत्व को समझते
हुए साहित्य और
इतिहास को मिलाकर
बहुमूल्य कृतियाँ
लिखी है।13
शिक्षा
के विकास से ही
वेदों को समझा
जा सकता है, क्योंकि
मानव के सार्वत्रिक
हित और कल्याण
के लिए वेदों की
सार्वभौम शिक्षा
को स्वीकार करना
आवश्यक बताया था।
स्वामी जी ने वेद
विषयक नियम को
इस प्रकार सुत्रित
किया ‘‘वेद
सब सत्य विधाओं
की पुस्तक है।’’ वेद
का पढ़ना-पढ़ाना
और सुनना-सुनाना
सब आर्यों का परम
धर्म है। वेद प्रचार
को और अधिक सशक्त
बनाने के लिए म0प्र0 एवं
विदर्भ क्षेत्र
में वेद प्रचार
विभाग की स्थापना
की गई। आर्य मंदिर, ग्रंथालय, वाचनालय
एवं शिक्षण संस्थाओं
के माध्यम से वेद
प्रचार का कार्य
करते हैं। म0प्र0 व विदर्भ
आर्य प्रतिनिधि
सभा का मुख्य पत्र
‘‘आर्य सेवक’’ 1902 से लगातार
भिन्न-भिन्न स्थानों
से प्रकाशित होता
है।
छत्तीसगढ़
अंचल में वेद प्रचार
कार्य का शुभारंभ
स्वामी दयानंद
सरस्वती ने स्वयं
किया था। अमरकंटक
आगमन के समय वे
बिलासपुर होते
हुए अमरकंट पहुंचे
थे। तभी उन्होंने
वेदों के प्रचार
का कार्य अपने
ही हाथों से आरंभ
किया था। स्वामी
दिव्यानंद जी ने
1951 से 1989 तक संपूर्ण
छत्तीसगढ़ के गांवों
में घूम घूमकर
वेद प्रचार का
कार्य किया। स्वामी
दिव्यानंद ने सरगुजा, रायगढ़
तथा बस्तर में
वेद तथा आर्य समाज
का संदेश लेकर
पहुंचे, इस प्रकार
आर्य समाज शिक्षा
के माध्यम से वेद
प्रचार को बढ़ाया, अंचल
के लोगों को लाभान्वित
किया।14
आर्य
समाज ने पूरे भारत
वर्ष में शिक्षा
के विकास में महत्वपूर्ण
कार्य किया है।
छत्तीसगढ़ के शिक्षा
विकास में भी आर्य
समाज की भूमिका
काफी महत्वपूर्ण
रही है। छत्तीसगढ़
स्थित आर्य शिक्षण
केन्द्रों में
शिक्षा के परंपरावादी
एवं विकासवादी
विचारों का समन्वय
स्थापित किया गया
है और अनेक बाल
विद्या मंदिर, विद्यालय
और महाविद्यालय
संचालित हो रहे
हैं, जिनमें
बढ़ती छात्रों की
संख्या आर्य समाज
के प्रयासों के
सफल होने का संकेत
देती है। आर्य
समाज ने गुरूकुल
शिक्षा और नारी
शिक्षा के क्षेत्र
में भी बेहतर कार्य
किया है।
छत्तीसगढ़
के विभिन्न आर्य
मंदिर आर्य शिक्षण
केन्द्र एवं कार्यालयों
के वाचनालय एवं
पुस्तकालयों में
वैदिक साहित्य
का प्रचुर भण्डार
है। उच्च कोटि
के वैदिक साहित्य
का निर्माण एवं
आर्य समाज तथा
वैदिक धर्म पर
आक्षेप करने वाले
लेखों के प्रत्युत्तर
देने हेतु प्रादेशिक
स्तर पर आर्य साहित्यकार
परिषद एवं आर्य
पत्रकार परिषद
की स्थापना की
गई है। आकाशवाणी
से वार्ताएं तथा
समाचार पत्रों
में लेखादि प्रकाशित
किए जाते हैं।
स्वामी
दयानंद सरस्वती
ने आर्य भाषा के
उत्थान, विशेष
रूप से हिन्दी
के उत्थान पर पुरजोर
बल दिया था। छत्तीसगढ़
के अनेक साहित्यकारों
ने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष
रूप से आर्य समाजी
विचारधारा को अपने
साहित्य में अभिव्यक्ति
दी है। फिर भी छत्तीसगढ़ी
भाषा के माध्यम
से आर्य समाज के
प्रचार की अल्पता
ने छत्तीसगढ़ जनमानस
को उतना प्रभावित
नहीं किया जितना
बुद्धिजीवियों
और विशिष्ट वर्गों
के लोगों को किया
है। आर्य प्रतिनिधि
सभा ने वेद प्रचार
के लिए वेद प्रचार
विभाग की स्थापना
की, जिससे छत्तीसगढ़
के लोगों के शिक्षा
विकास के साथ वे
अपने वेदों को
भी समझ पाये।
संदर्भ
ग्रन्थ सूची
1. गुप्त, प्यारेलाल, प्राचीन
छत्तीसगढ़, पंडित
रविशंकर शुक्ल
विश्वविद्यालय, रायपुर, प्रकाशन
वर्ष, 1973, पृष्ठ, 8
2. दयानंद
सरस्वती, सत्यार्थ
प्रकाश, पृष्ठ, 75
3. विद्यालंकार, सत्यकेतु, आर्य
समाज का इतिहास, खण्ड, 3, आर्य
स्वाध्याय केन्द्र, नई दिल्ली, 1985, पृष्ठ, 106
4. दयानंद
सरस्वती, सत्यार्थ
प्रकाश, पृष्ठ, 57
5. दयानंद
सरस्वती, सत्यार्थ
प्रकाश, पृष्ठ, 60
6. तनेजा, सावित्री, ए सेंचुरी
आॅफ वीमेन्स एजूकेशन
इन द पंजाब (1862 - 1962) पृष्ठ, 113
7. आर्य
समाज स्थापना शताब्दी
स्मारिका, 1975, आर्य
प्रतिनिधि सभा
म0प्र0 एवं
विदर्भ, पृष्ठ, 23
8. ‘‘आर्य
सेवक’’ आर्य
शिक्षण संस्था
परिचय विशेषांक, मार्च-अप्रेल, 1994
9. गायकवाड़, जयसिंह, साहा, गणेश
प्रसाद, आर्य
प्रतिनिधि सभा
म0प्र0 विदर्भ
तथा उसके अन्तर्गत
आर्य समाजों व
संस्थाओं का इतिहास, पृष्ठ, 496
10. साक्षात्कार, श्री
राजकुमार गुप्ता, लेखापाल, तुलाराम
आर्य कन्या उच्चत्तर
माध्यमिक विद्यालय, टाटीबंध, रायपुर
पर आधारित, दिनांक
05.03.12
11. साक्षात्कार, श्री
विनोद सिंह, प्राचार्य, महर्षि
दयानंद आर्य उच्चत्तर
माध्यमिक विद्यालय, टाटीबंध, रायपुर
पर आधारित, दिनांक
02.03.12
12. गायकवाड़, जयसिंह, पूर्वोक्त, सूची
के अनुसार
13. आर्य
समाज स्थापना शताब्दी
समारोह स्मारिका, 1975, आर्य
प्रतिनिधि सभा
एवं विदर्भ, पृष्ठ, 67
14. आर्य, कमलनारायण, स्वामी
दिव्यानंद सरस्वती
का जीवन दर्पण, पृष्ठ, 16.
Received on 15.10.2013 Modified on 18.11.2013
Accepted on 22.12.2013 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 1(2): Oct. - Dec. 2013; Page 48-51