दलित साहित्य की अवधारणा और हिन्दी साहित्य
बृजेन्द्र पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
*Corresponding Author
E-mail: brijpandey09@gmail.com
जहां तक दलित साहित्य की अवधारणा का सवाल है तो इस संबंध में आज भी दलित साहित्यकारों एवं गैरदलित साहित्यकारों में कशमकश जारी है । दरअसल, दलित साहित्यकार आज भी मानते है कि दलितों की पीड़ा का आख्यान दलित ही कर सकता है क्योंकि ‘जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’, लेकिन गैरदलित लेखकां का मानना है कि बिना बिवाई फटे भी उसके दुःख-दर्द और पीड़ा को महसूस किया जा सकता है और सहानुभूतिपूर्वक उसका वर्णन भी किया जा सकता है । यानी स्वानुभूति और सहानुभूति का द्वंद्व आज भी जारी है । मशहूर माक्र्सवादी आलोचक डाॅ. नामवर सिंह ने लोकतंत्र की परिभाषा ‘आॅफद पीपुल’ बाई द पीपुल एण्ड फाॅर द पीपुल’ की तर्ज पर स्वीकार किया है कि दलित साहित्य वह है जो दलितों द्वारा, दलितों के बारे में और दलितों के लिए लिखा गया है जो केवल अंबेडकरवाद से प्रभावित है, उसमें न गांधीवाद की मिलावट है और न ही माक्र्सवाद की । लेकिन दूसरे माक्र्सवादी आलोचक डाॅ. मैनेजर पांडेय नामवर सिंह से कुछ भिन्न मत रखते हैं ।
उनकी नजर में दलित साहित्य को दो रूपों में देखा जा सकता है । एक तो दलितों के द्वारा, दलितों के बारे में, दलितों के लिए लिखा गया साहित्य और दूसरा दलितों के बारे में गैरदलित लेखकों का साहित्य । बकौल मैनेजर पाण्डेय करूणा और सहानुभूति के सहारे गैरदलित लेखक भी दलितों के बारें मं अच्छा साहित्य लिख सकते है, लेकिन सच्चा दलित साहित्य वहीं है जो दलितों द्वारा अपने बारे में या सवर्ण समुदाय के बारे में लिखा जाता है, क्योंकि ऐसा साहित्य सहानुभूति और करूणा से नहीं, बल्कि स्वानुभूति से उपजा होता है । शायद इदसीलिए मशहूर दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय का मानना है कि दलित साहित्य दलितों का ही हो सकता है, क्योंकि उन्होंने जा ेनारकीय उपेक्षापूर्ण जीवन जिया है, वह कल्पना की चीज नहीं है । दलित साहित्य में गुस्सा और नफरत अनुभूति प्रेरित है । उसे कला के छल की जरूरत नहीं है आज भी वर्चस्ववादी ताकतें हमंे वंचितों की कोटि में रखना चाहती है । दलित साहित्य की पहचान है- चेतना का उगता हुआ सूरज । वहीं हमारी मुक्ति का संदेश होगा। दलित साहित्य जख्मी लोगां का दस्तावेज है । बकौल ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य उन लोगों की व्यथा का साहित्य है जिन्हांेने अस्पृश्यता का दंश झेला है और झेल रहे हैं । वाल्मीकि के मुताबिक जो दलित बस्ती में चार दिन गुजार ले, वह वर्ण-व्यवस्था के माने समझ जाएगा । उसकी दृष्टि बदल जाएगी, उसके सारे मूल्य बदल जाएंगे । कुछ ऐसी ही बात कँवल भारती भी करते हैं, क्योंकि वे भी मानते हैं कि दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें गांव के बाहर हाशिर पर रखा गया है और उनकी जीवन-शैली के ‘कोड’ निर्धारित है कि उन्हें क्या-क्या नहीं करना है । बाबासाहेब अंबेडकर के दर्शन से नई दृष्टि प्राप्त कर लिखा जा रहा है दलित साहित्य जिसमें निषेध, नकार और विद्रोह की भावना भरी हुई है । बकौल ताराचंद खांडेकर दलित साहित्य अंधश्रद्धा, शब्दप्रामाण्य, गं्रथ प्रामाण्य, आत्मा, ईश्वर और उस पर आधारित समस्त नैतिकता एवं धर्मसत्ता को अस्वीकार करता है ।
हिन्दीं दलित साहित्य की जड़ें मराठी में हैं या हिन्दीं में हैं, इसको भी लेकर बहुत दिनों तक ऊहापोह बना रहा है । कंवल भारती जैसे लेखक तो उसे हिन्दीं साहित्य के आदिकाल से जोड़ते हैं और कहते है कि सिद्ध कवि सरहपाद को हिंदी काप्रथम कवि माना जाता है। इन्हें से हिंदी साहित्यच का आदिकाल आरंभ होता है । लेकिन यह वास्तव में दलित साहित्य का आदिकाल है । इसके बाद जा ेधारा हिंदी में प्रवाहित हुई वह प्रतिक्रांति की धारा है । वर्ण-व्यवस्था के विरोध और सामाजिक परिवर्तन की जो क्रांति बुद्ध ने की थी, आदिकाल के सिद्ध कवि इसी क्रांति के वाहक थे । इनमें 37 सिद्ध शूद्र थे । कंवल भारती की बातों को यदि रामचन्द्र शुक्ल के कथन से मिलाकर देखें तो इसमें सत्यता नज़र आती है । शुक्लजी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है, ‘‘84 सिद्धों में बहुत से मछुए, चमार, धोबी, डोम, कहार, लकड़हारे, दरजी तथा बहुत से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे । अतः जाति-पांति के खंडन तो वे आप ही थे’’ राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिन्दी काव्य धारा ’ में जिन 84 सिद्धों की जीवनियां दी हैं, उनसे भी उनकी जातियों और पेशों का पता चलता है । उनमें 18 शूद्र, 1 मछुआ, 2 तँतवा, 1 धोबी, 1 लकड़हारा, 1 लोहार, 1 डोम, 1 चिड़ीमार, 1 कहार, 1 दर्जी, 1 चमार और 4 स्त्रियां शामिल है । लेकिन इनके अलावा शेष अगड़ी जातियों के सिद्ध हैं जिनमें कुछ वर्ण-व्यवस्था के विरोधी हैं । बकौल कँवल भारती सरहपाद ब्राम्हण थे, पर वर्ण व्यवस्था के खिलाफ उन्होंने जबर्दस्त विद्रोह किया था । उन्हांेने वर्ण के बाहर नीची जाति की शर (तीर) बनाने वाली कन्या से विवाह किया था । इसलिए वह सरह कहलाये । वर्ण-व्यवस्था का विनाश और समता की स्थापना ही दलित साहित्य का लक्ष्य है और आदिकाल के सिद्ध कवि इसी चेतना के संवाहक है । सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय की इसी प्राचीन धारा के समानांतर ब्राम्हण साहित्य की परंपरा अस्तित्व में आयी जिसकी मुख्य प्रवृत्तियां वर्ण-व्यवस्था के समर्थन की रहीं । यद्यपि आदिकाल में प्रतिक्रांति की धारा को गति नहीं मिली, क्योंकि इसके बाद कबीर आदि दलित संत कवियों का युग आया जिन्होंने वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के खिलाफ अपने विद्रोह को और तेज किया, परंतु इसी युग में ब्राम्हाणों द्वारा प्रतिक्रांति की धारा स्ािापित करने के प्रयास आरंभ हो गये थे । इनमें रामानंद अग्रगण्य थे । रामानंद को लेकर भी साहित्येतिहास में एक तरह का भ्रम है कि वे जात-पांत मंे यकीन नहीं करते थे, जबकि यह सच नहीं है ‘जात-पांत पूछे नहिं कोई हरि को भजै सो हरि का होई’ का संबंध भक्ति भावना तक सीमित है लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था के मामले में नहीं । शुक्ल जी ने ‘हिन्दीं साहित्य का इतिहास’ में लिखा है, ‘‘भक्ति मार्ग में इनकी उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है- जैसा कि कुछ लोग समझा करते हैं कि रामानंद जी वर्णाश्रम के विरोधी थे । समाज के लिए वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न-भिन्न कर्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे । केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सबका समान अधिकार स्वीकार किया । ’’ शायद यही कारण है कि दलित साहित्यकार रामानंद को कबीर और रैदास का गुरू मानने से इनकार करते है, क्योंकि जब दोनों के बीच कोई वैचारिक समता ही नहीं थी, तब गुरू-शिष्य संबंध कैसे स्थापित हो सकता था । दलित साहित्यकार यह मानते हैं कि कबीर और रैदास जैसे कवियों की जाति और वर्ण-व्यवस्था के विरोध की धारा के समानांतर तुलसी दास जैसे ब्राम्हण कवियों की काव्यधारा प्रतिष्ठित होती है जिसे प्रकारांतर से वर्ण-व्यवस्था के समर्थन और ब्राम्हणवाद के उत्थान की धारा भी कहा जा सकता है । शायद यही कारण है कि शिवकुमार मिश्र जैसे प्रगतिशील लेखकों को भी सगुणोपासक धारा का सामाजिक प्रदेय नहीं के बराबर दिखता है । क्योंकि रूढ़ सामाजिक व्यवस्था से टकराने का प्रयास कोई भी निचली जाति का कवि नहीं करता, यहीं पूरे सगुण धारा में एक भी निचली जाति का कवि नहीं है, क्योंकि राम और कृष्ण के दरबार मंे कोई अछूत प्रवेश भी कैसे कर सकता था ।
करीब-करीब रीतिकाल तक यही सिलसिला चलता है क्योंकि भोग-विलास में डूबे राजाओं- महाराजाओं को खुश करना ही कवियों का उद्देश्य था । महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जून 1901 की ‘सरस्वती’ में रीतिकालीन सामंती कविता के विरूद्ध ‘नायिका भेद’ शीर्षक लेख में लिखा- ‘‘राज्याश्रय मिलने की देरी, राजाओं को सब प्रकार की नायिकाओं के रसास्वादन का आनंद चखाने के लिए कविजी की देरी नहीं । 10 वर्ष की अज्ञात यौवना से लेकर 50 वर्ष की प्रौढ़ा तक का सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद बतलाकर और उनक हाव-भाव, विलास आदि की सारी दिनचर्या वर्णन करके ही कविगण संतोश नहीं करते थे । दुराचार में सुघरता होने के लिए दूती कैसी होनी चाहिए, मालिन, नाइन, धोबिन इत्यादि में से इस काम के लिए कौन सबसे अधिक प्रवीण होती है, इन बातों का भी वे निर्णय करते थे । ’’ जाहिर है कवियों का उद्देश्य सामाजिक भेदभाव, जात-पांत, छुआछूत, ऊँच-नीच की समस्या को केन्द्र में रखना था ही नहीं । कहने को तो भारतेन्दु युग को हिन्दी में पुनर्जागरण, नवजागरण जेसे नामों से संबोधित किया गया, लेकिन वीरभारत तलवार की ‘रस्साकशी ’ की माने तो हिन्दी पट्टी में नवजागरण आया ही नहीं । उन्होंने तो पूरे युग को हिन्दी बनाम उर्दू, हिन्दू बनाम मुस्लिम और गोरक्षा तक सीमित कर दिया है । फिर दलित लेखन का सवाल ही कहां उठता है । महावीर प्रसाद द्विवेदी कालीन ‘सरस्वती’ में 1914 में हीरा डोम की भोजपुरी कविता ‘अछूत की शिकायत’ जरूर छपी । लकिन उसके बाद दलित चेतना की कोई रचना उसमें दिखाई नहीं देता । ‘सरस्वती ’ से अवकाश ग्रहण करने के कई साल बाद द्विवेदीजी ने पं. श्रीराम शर्मा को 21.09.33 को लिखा था - ‘‘खूब लिखिए- कोरियों, चमारों आदि गरीबों के चरित लिखकर आत्मा को उन्नत कीजिए । बड़े-बड़े चरित लिखने वाले तो बहुत है, दीन-दुखियों के जीवन का खाका खींचने वाले कोई भी नहीं । अंगे्रजों के मुल्क में तो कीटपतंगों और पशु पक्षियों तक के जीवन चरित निकलते है ।’’ पता नहीं द्विवेदी जी और शर्माजी दोनों ने किसी कोरी या चमार की जीवनी लिखी या नहीं ?
छायावादी कवियों में भी किसी कवि को दलित अपना कवि नहीं मान पाते क्योंकि उनमें वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक भेदभाव से टकराने की क्षमता नहीं । वे सदियों से चली आ रही सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था में ही भेदभाव दूर करने की बात करते हैं, लेकिन सामाजिक परिवर्तन की नहीं । प्रसाद, पंत, महादेवी और निराला में निराला को प्रगतिशील कवि माना जाता है, लकिन दलित लेखक उन्हें दलित कवि नहीं मानते । वे मानते हैं कि निराला वेदांती थे, शंकर के अद्वैत दर्शन से प्रभावित थे और तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे जो वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक थे रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद में उनकी घारे आस्था थी । इसे भी दलित लेखकों ने वेदांत से ही जोड़कर देखा है । दलित लेखकों का आरोप है कि वे ब्राम्हण न होते तो उनको महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जाता ।
कँवल भारती ने तो निराला के समकालीन कवि निरंकार देव सेवक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उन्होंने सर्वाधिक क्रांतिकारी और प्रगतिशील कविताएं लिखी थीं पर उनका नाम न तो हिंदी साहित्य के इतिहास में मिलता है और न हिंदी के नामवर आलोचक उनकी चर्चा करते हैं । सेवक जी की अपनी मान्यता थी कि उनमें दो दोष थे जिनके कारण इतिहास लेखकों ने उनकी उपेक्षा की । एक, वह ब्राम्हण नहीं थे और दो वह कम्युनिस्ट नहीं थे । कम्युनिस्ट निराला भी नहीं थे, परंतु वह ब्राम्हण अवश्य थे । निराला पर यह भी आरोप है कि 1922 में पंजाब में लाला संतराम ने एक ‘जात-पांत तोड़क मंडल’ बनाया और उसके माध्यम से उन्होंने वर्णाश्रम पर करारा हमला किया, लेकिन निराला ने बजाय उनका समर्थन करने के उस मंडल का विरोध किया और शंकराचार्य की निंदा करने के लिए संतराम की कड़ी भत्र्सना की । यही नहीं, निराला ने वर्ण-व्यवस्था का जबरदस्त पक्ष लेते हुए ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ पर लंबा लेख लिखा । दलितों का यह भी कहना है कि निराला की सर्वाधिक प्रशंसनीय कविताएं ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘तुलसीदास’ हैं जिनका दलित चेतना की दृष्टि से काई महत्व नहीं ये दोनों की कविताएं ब्राम्हणवाद एवं वर्णाश्रम धर्म की प्रबल समर्थक हैं । निराला की ‘तोड़ती पत्थर’, ‘जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाओं’, ‘चतुरी चमार’ और ‘कुल्ली भाट’ को जरूर दलित चेतना का कवित मानने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि जो वर्णाश्रम का पक्षधर हो, ब्राम्हणवाद का हिमायती हो, वह दलित चेतना का वाहक कैसे हो सकता है? निराला की तरह प्रेमचंद को भी दलित लेखक अपना नहीं मानते । बस इतना वे जरूर मानते हैं कि दलित जीवन पर लिखने वाले वे पहले कहानीकार थे जिन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता के सवाल जरूर उठाये हैं, लेकिन उनका संबंध अंबेडकर की दलित चेतना से न होकर गांधीवादी हरिजनोत्थान से है क्योंकि उन्होंने दलित होने की पीड़ा नहीं झेली थी, यानी उनका साहित्य सहानुभूति पर आधारित है, स्वानुभूति परक नहीं । अब तो प्रेमचन्द की कुछ कहानियों यथा, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सद्गति’ और ‘कफन’ एवं उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ पर दलित लेखकों ने अनेक सवाल उठा दिये हैं । उनके हिसाब से दलित पात्रों में जो आक्रोश होना चाहिए, वह प्रेमचंद के दिलत पात्रों मंे नहीं है । बहरहाल, जो थोड़ी बहुत कसर रह गयी थी, उसे डाॅ. धर्मवीर की नयी पुस्तक ‘सामंत का मुंशी: प्रेमचंद’ ने पूरी कर दी । धर्मवीर ने लिखा है, ‘‘असल में, चमारों के बारे में लिखी गई प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘कफन’ में सच का ‘एक बटा नौ भाग’ ही कहा गया है । कफन का ‘आठ बटा नौ भाग’ अनकहा रह गया है जो प्रेमचंद के पेट में है । केवल साहित्य की दलित समीक्षा ही उस पूरे आइसबर्ग को बाहर लाएगी । सारी कहानी नये सिरे से स्पष्ट हो जाती यदि प्रेमचंद इस कहानी की आखिरी लाइन में दलित जीवन का यह सच लिख देते कि बुधिया गांव के जमींदार के लौंडे से गर्भवती थी । उसने बुधिया से खेत में बलात्कार किया था । तब, शब्द दीपक की तरह जल उठते और सब कुछ समझ में आ जाता ।’’ (पृष्ठ 17) धर्मवीर ने जो कुछ कहा है, संभव है यही हो, लेकिन जो पाठ (ज्मगज) में नहीं है, क्या उसे उसमें अपनी तरफ से जोड़ने का अधिकार उन्हें है, क्या उसे उसमें अपनी तरफ से जोड़ने का अधिकार उन्हंे है भी? यदि है तब तो उसकी समीक्षा ठीक है, लेकिन नहीं है, तब यह उनका अतिरिक्त उत्साह ही माना जाएगा। लेकिन धर्मवरी का कहना है कि ‘कफन’ पर कफन से बाहर जाने की जरूरत के दो कारण हैं, पहला प्रेमचंद ने इस कहानी में ‘चमार’ शब्द का प्रयोग किया है और दूसरा प्रेमचंद ने घीसू और माधव के व्यवहार की व्याख्या की है । यदि वे व्याख्या न करते तो समीक्षा में कहानी से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती । इसके अलावा धर्मवीर ने सारे हिन्दुओं को जारकर्म में यकीन रखने वाला बताने के साथ-साथ ही प्रेमचंद को अपनी पत्नी के अलावा रखैल रखने को सेक्स का चोर कहा है और अंबेडकर की कसौटी में उन्हें बुरी तरह फेल बताकर जमींदार सिद्ध करने की कोशिश की है । इस पुस्तक में ऐसे ही कई अंश हैं जिनसे नाराज होकर डाॅ. नामवर सिंह ने इस पुस्तक का लोकार्पण करने से मना कर दिया था और अब धर्मवीर पर चारों तरफ से हमले जारी हैं, हों भी क्यों न हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक पर उंगली जो उठी है ।
यानि पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास पर सरसरी नजर दौड़ाने के बाद सिद्ध साहित्य के अलावा निर्गुण संतों में कबीर और रैदास के बाद सिद्ध सीधे आधुनिक काल में निराला और प्रेमचंद में ही दलित चेतना दिखाई देती है । यह और बात है कि दलित लेखकों की दृष्टि में वे दलित लेखक नहीं हैं क्योंकि वह यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कोई गैरदलित लेखक भी दलित लख्ेान कर सकता है ।
समकालीन हिन्दी दलित विमर्श - हिंदी में बीसवीं सदी की अंतिम दहाई में जब हिंदी दलित साहित्य एवं साथ-साथ चिंतन की चर्चा शुरू हुई तो अगड़े वर्ग के लेखकों ने उसका विरोध करना शुरू किया । श्री काशीनाथ सिंह ने अगड़ों का मोर्चा संभालते हुए कहा ‘‘दलितों पर लिखने के लिए दलित होना आवश्यक नहीं । हिंदी में दलित लेखक हैं, दलित साहित्य नहीं है ।’’ इसके जवाब में ओम प्रकाश वाल्मीकि ने कहा - ‘‘दलित के नाम पर वाल्मीकि और व्यास ने ब्राम्हणवाद की बात की है । कोई दलित होकर ब्राम्हणवाद की बात करता है तो वह दलित साहित्य का रचयिता कैसे हो सकता है? इसके बाद अगड़े लेखकों ने यह सवाल तो उठाया ही कि दलित साहित्य केवल दलित ही नहीं लिख सकता , बल्कि सवर्ण साहित्यकार भी लिख सकते हैं, यह भी आरोप लगाया कि दलित साहित्य को फोर्ड फाउंडेशन संचालित कर रहा है । डाॅ. अंबेडकर तो देशद्रोही और ‘अंग्रेजों के पिट्ठू’ थे । डाॅ. रामदरश मिश्र जैसे लेखकों ने यहां तक कहा कि ‘‘साहित्य में आरक्षण नहीं चल सकता । दलित साहित्यकारों में साधना का अभाव है जिसके कारण दलित साहित्य कलात्मक नहीं है । ’’ डाॅ. नामवर सिंह ने यह कहा कि ‘‘मूल पौधा तो मराठी का है ।’’ अब हिन्दीं में इसकी कलम लगायी जा रही है । ’’ इसके बाद स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का मामला उठाया गया और कहा गया कि ‘स्वानुभूति और सहानुभूति’ की बात करना दलित साहित्य के संदर्भ में व्यर्थ है । दलित साहित्य कोई भी लिख सकता है । इसको पुष्ट करने के लिए दूधनाथ सिंह और अखिलेश ने ‘निष्कासन’ और ‘ग्रहण’ लिखकर यह साबित करने की कोशश की कि वे भी दलित कहानियां लिख सकते हैं, लेकिन डाॅ. एन. सिंह ने दोनों कहानियों का विश्लेषण करके बताया कि दलित साहित्य की कसौटी पर ये दोनों कहानियां खरी नहीं उतरतीं ।
बहरहाल इस लंबी कशमकश के बाद हिंदी में दलित साहित्य को स्वीकृति मिली, लेकिन अभी भी दलित साहित्यकार स्वानुभूति पर आधारित साहित्य को ही दलित साहित्य मानते हैं । बकौल युवा दलित साहित्यकार रामचन्द्र दलित चिंतक और दलित साहित्यकार उसे माना गया है जो बुद्ध के शील, समाधि और प्रज्ञा का पालन करता हो तथा बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर के विचारों को आधार मानता हो । लेखन, विचार और चिंतन का प्रयोजन एवं सरोकार समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व हो । ये कसौटियां फतवे के तरत नहीं हैं, बल्कि परिवर्तनकामी दृष्टि के लिए अपेक्षित हैं । हिंदी पट्टी में दलित चेतना फैलने का विश्लेषण करते हुए रामचंद्र ने अपने लेख ‘समकालीन हिन्दी दलित विमर्श’ में लिखा है कि समकालीन संदर्भों में यहां के कुछ मुस्लिम और दलित वर्ग (पिछड़ा वर्ग भी) के कर्मचारियों-अधिकारियों की काफी बड़ी संख्या को संगठित करके बी.एस.पी. ने आम जनता को 20वीं सदी के आखिरी दशकों में गौतम बुद्ध, ज्योतिबा फुले, डाॅ. अंबेडकर तथा अन्य परिवर्तनकामी शक्तियों के मुक्ति के संघर्ष से परिचित कराया । हिंदी के दलित रचनाकार और चिंतक इस बात को स्वीकार करें या न करें, परंतु यह सच है कि हिंदी में बी.एस.पी. की धौंसभरी दस्तक ने यहां पहले से मौजूद चेतना की चिनगारी को हवा दी । इस परिस्थिति ने दलित विमर्श को विस्तार दिया है, संवाद की सक्रियता को बढ़ाया है । डाॅ. अंबेडकर का परिवर्तनकामी मुक्ति आंदोलन और चेतना की लहर अवसर पाकर गतिशील हुई है । यद्यपि हिंदी में राजनीतिक दस्तक को दलित विमर्श का एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता, उत्तर भारत में बीएसपी के उदय से पूर्व बुद्ध और डाॅ. अंबेडकर का साहित्य पढ़े-लिखे दलितों के बीच पहुंच चुका था । चेतना की लहर पहले से गतिमान थी और रचनाकर्मी भी मौजूद थे । लेकिन गैरदलित चिंतक और मीडियाकर्मी चेतनाशील दलित रचनाकारों को कोई खास तवज्जों नहीं दे रहे थे । किंतु अब स्थिति बदली है । ‘पावर पाॅलिटिक्स’ ने संवाद की स्थिति को मजबूत किया है । विगत डेढ़-दो दशकों में बड़ी संख्या में दलित साहित्यकार सामने आये है और उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई है । वैचारिक पुस्तकों में दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र (शरण कुमार लिम्बाले), दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र (ओम प्रकाश वाल्मीकि), दलित डायरी (चन्द्रभान प्रसाद), कबीर के आलोचक, कबीर के कुछ और आलोचक, सूत न कपास, कबीर और रामानंदः किंवदंतियां, कबीर: बाज भी कपोत भी पपीहा भे, डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिंतन और संत रैदास का निवर्ण संप्रदाय, सामंत का मुंशी प्रेमचंद, प्रेमचंद की नीली आंखे, खसम खुशी क्यों होय (डाॅ. धर्मवीर), संत रैदास एक विश्लेषण (कंवल भारती), लोकतंत्र में भागीदारी का सवाल दलित विमर्श की भूमिका (जयप्रकाश कर्दम), दलित साहित्य में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना, हिंदी दलित पत्रकारिता पर अंबेडकर का प्रभाव (डाॅ. श्योराज सिंह ‘बेचैन’), हिंदी उपन्यासों में दलित वर्ग (कुसुम मेघवाल), इक्कीसवीं सदी में अम्बेडकर (डाॅ. रघुवीर सिंह), दलित कहां जायें (जियालाल आर्य), अंबेडकर विरोधियों के चक्रव्यूह में (मोहनदास नैमिशराय), दलित साहित्य सृजन के संदर्भ में (डाॅ. चमन लाल), स्वतंत्रता संग्राम के दलित क्रांतिकारी (मोहनदास नैमिश राय), निम्नवर्गीय मेरा दलित चिंतन (डाॅ. एन. सिंह), दलित साहित्यः सृजन के संदर्भ, दलित साहित्य रचना और विचार (पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी), आज का दलित साहित्य (डाॅ. तेज सिंह), चिंतन की परंपरा और दलित साहित्य (डाॅ. श्योराज सिंह ‘बेचैन’ एवं डाॅ. देवेन्द्र चैबे), दलित दखल (सं. डाॅ. श्योराज सिंह बेचैन, डाॅ. रजत रानी ‘मीनू’), धर्मांतरण और दलित (सं. जयप्रकाश कर्दम), दलित विमर्श: संदर्भ गांधी (गिरिराज किशार), दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद (सं. सदानंद शाही) आदि प्रमुख है ।
वैचारिक पुस्तकों की भांति कहानी संग्रहों में पुनर्वास (विपिन बिहारी), समकालीन दलित कहानियां (सं. कुसुम वियोगी), चर्चित दलित कहानियां (सं. कुसुम वियोगी), आवाजें (मोहनदास नैमिश राय), देवता आदमी (शरण कुमार लिंबाले), हिस्से की रोटी (शत्रुघ्न कुमार), दलित अंतद्र्वंद्व (स्वरूप चंद बौद्ध), दलित जीवन की कहानियां (गिरिराज शरण), सलाम एवं घुसपैठिए (ओमप्रकाश वाल्मीकि), सुरंग (दयानंद बटरोही), हैरी कब आएगा (सूरजपाल चैहान), चार इंच की कलम (कुसुम नियोगी), तीन महाप्राणी (बुद्धशरण हंस), अपना मकान (विपिन बिहारी), आधे पर अंत (विपिन बिहारी), द्रोणाचार्य एक नहीं (कावेरी), साग और अन्य कहानियां (ठाकुर प्रसाद राही), चन्द्रमौलि का रक्तबीज (सत्यप्रकाश), दलित कहानी संचयन (सं. रमणिका गुप्ता), अनुभूति के घेरे (सुशीला टाकभौरे), टूटता बहम (सुशीला टाकभौरे), दूसरी दुनिया का यथार्थ (सं. रमणिका गुप्ता), हाशिये के बारह (सं. रजतरानी ‘मीनू’), काले हासिए पर (सं. डाॅ. एन.सिंह), यातना की परछाइयां (सं. डाॅ. एन. सिंह), आदि प्रमुख है ।
दलित कहानियों की तरह उपन्यासों में छप्पर (जयप्रकाश कर्दम), पहला खत (डाॅ. धर्मवीर), अमर ज्योति (डी.पी. वरूण), बंधन मुक्त (रामजीलाल सहायक), जस तस भई सबेर (सत्यप्रकाश), मुक्ति वर्ग (मोहन दास नैमिशराय), मिट्टी की सौगंध (प्रेम कपाड़िया), प्रस्थान (परदेशीराम वर्मा), डूब जाती है नदी (गुरूचरण सिंह), भूमिपुत्र (राणा प्रताप), नरवानर (शरण कुमार लिम्बाले ) आदि प्रमुख है । दलित आत्मकथाएं भी कम मशहूर नहीं है । मराठी में अछूत (दया पवार), अक्करमाशी (शरण कुमार लिम्बाले), जीवन हमारा (बेबी कांबले), उचक्का (लक्ष्मण गायकवाड़), उठाईगीर (लक्ष्मण गायकवाड़), छोरा कोल्हारी का (किशोर शांताबाई काले), पराया (लक्ष्मण माने), डेराडंगर (दादा साहब मोरे), भूले बिसरे दिन (अरूण खोरे), नरक सफाई (अरूण ठाकुर/मुहम्मदर खडस), तराल-अंतराल (शंकर राव खरात, ) यादों के पंछी (प्र.ई. सोन कांबले ) आदि प्रमुख हैं तो हिंदी में अपने-अपने पिंजरे, दो भाग (मोहनदास नैमिशराय), जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि), तिरस्कृत (सूरजपाल चैहान, ) तिरस्कार (के. नाथ), दोहरा अभिशाप (कौसल्या बैसंत्री), मेरा सफर-मेरी मंजिल (डी.आर. जाटव), झोपड़ी से राजभवन (माता प्रसाद), छाग्या रूक्ख (बलवीर माधोपुरी), पगडंडियां (बंचित कौर), और अंग्रेजी में आई वाज एन आउट कास्ट इंडियन (हजारी), अनटोल्ड स्टोरी आॅफ ए भंगी वाइस चांसलर (प्रो. श्याम लाल) आदि प्रमुख है ।
आत्मकथाओं की तरह कविताओं के मामले में भी हिंदी का दलित साहित्य काफी समृद्ध हो चुका है । तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती (कंवल भारती) गंूगा नहीं था मैं, तिनका-तिनका आग (जय प्रकाश कर्दम), सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका (ओम प्रकाश वाल्मीकि), एकलव्य (माता प्रसाद), आग और आंदोलन (मोहन दास नैमिश राय), सतह से उठते हुए चेतना के स्तर (डाॅ. एन.सिंह), यातना की आंखें (दयानंद बटरोही), सुनों ब्राम्हण (मलखान सिंह), हार नहीं मानूंगा (ईश कुमार गंगानिया),टुकड़े टुकड़े दंस (कुसुम वियोगी), हीरामन, किनारे भी मंझधार भी, कंपिला (डाॅ. धर्मवीर), क्रौंच हूं मैं, नयी फसल (श्योराज सिंह बेचैन), नियति नहीं यह मेरी (सुदेश तनवर), शब्द थके जरूर हैं (चिरंगी लाल कटारिया), सवालों का सूरज, दखल देती कविता (पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी), अनुभूति से अभिव्यक्ति तक (विपिन बिहारी), पदचाप (रजनी तिलक), बिरसा (जिया लाल आर्य), पुश्तैनी पीड़ा (तेजपाल सिंह तेज), दलित पचासा (एस.आर. विद्रोही), अंबेडकर शतक (सोहनपाल सुमनाक्षर) आदि प्रमुख है ।
वैचारिक एवं सृजनात्मक साहित्य के अलावा दलित विमर्श से संबंधित निम्न पत्रिकाएं भी प्रकाशित हो रही है: हंस (राजेन्द्र यादव), युद्धरत आम आदमी (रमणिका गुप्ता) दलित साहित्य (जय प्रकाश कर्दम), अपेक्षा (तेज सिंह), अंबेडकर इन इंडिया (दयानाथ निगम), दलित टुडे, मूक नायक, आश्वस्त (डाॅ. तारा परमार), सामाजिक न्याय संदेश (मोहन दास नैमिश राय), पूर्व देवा (अवन्तिका प्रसाद मर्मट) आदि ।
संदर्भ गृन्थ सूची:
01. ओमप्रकाश वाल्मीक, ‘‘दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र‘‘ पृ. क्र. 142
02. डाॅ. पूरणमल ‘‘दलित संघर्ष और सामाजिक न्याय‘‘ पृ. क्र. 105
03. सेहन लाल सुमनाक्षर ‘‘दलित साहित्य‘‘ पृ. क्र. 90
04. हिन्दी दलित साहित्यः संपादक- यज्ञ प्रसाद तिवारी पृ. क्र. 18
05. हिन्दी समकालीन साहित्य मे दलित चेतना निबंधः डाॅ. उमाशंकर तिवारी पृ. क्र. 54
06. धरती धन न अपना: जगदीशचन्द्र पृ. क्र. 19
Received on 25.05.2015 Modified on 16.06.2015
Accepted on 27.06.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(2): April- June. 2015; Page 94-99